अजीज़ इतना ही रखो के जी संभल जाये
अब इस कदर भी ना चाहो के दम निकल जाये
मिले हैं यूं तो बहुत आओ अब मिलें यूं भी
के रूह गरमी -ऐ -अनफास से पिघल जाये
मुहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
के जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये
रहे वो दिल जो तमन्ना - ऐ -ताज़ा तर में रहे
खुशा वो उम्र जो ख़्वाबों ही में बहल जाये
मैं वो चराग -ऐ -सर -ऐ - रहगुज़ार -ऐ -दुनिया हूँ
जो अपनी जात की तन्हाईयों में जल जाये
हर एक लहजा यही आरजू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शेर में भी ढल जाये
अब्दुल्लाह अलीम
Saturday, April 4, 2009
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