Saturday, April 4, 2009

अजीज़ इतना ही रखो

अजीज़ इतना ही रखो के जी संभल जाये
अब इस कदर भी ना चाहो के दम निकल जाये

मिले हैं यूं तो बहुत आओ अब मिलें यूं भी
के रूह गरमी -ऐ -अनफास से पिघल जाये

मुहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
के जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये

रहे वो दिल जो तमन्ना - ऐ -ताज़ा तर में रहे
खुशा वो उम्र जो ख़्वाबों ही में बहल जाये

मैं वो चराग -ऐ -सर -ऐ - रहगुज़ार -ऐ -दुनिया हूँ
जो अपनी जात की तन्हाईयों में जल जाये

हर एक लहजा यही आरजू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शेर में भी ढल जाये


अब्दुल्लाह अलीम

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