Tuesday, December 30, 2008

इस बार नहीं ..( मुंबई की आतंकवादी घटना के सन्दर्भ में.)

इस बार नहीं
इस बार जब वोह छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी खरोंच ले कर आएगी
मैं उसे फू फू कर नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूँगा उसकी टीस को

इस बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा
नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा ,उतरने दूँगा अन्दर गहरे
इस बार नहीं इस बार मैं ना मरहम लगाऊंगा
ना ही उठाऊंगा रुई के फाहे
और ना ही कहूँगा की तुम आँखें बंद करलो ,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ
देखने दूँगा सबको हम सबके खुले नंगे घाव

इस बार नहीं
इस बार जब उलझने देखूँगा,
छट्पटाह्ट देखूँगा
नहीं दौडूंगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके

इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊंगा औजार
नहीं करूंगा फिर से एक नयी शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िन्दगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूँगा उसे कीचड मैं ,टेढे मेढे रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार की
पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए

इस बार नहीं
इस बार घावों को देखना है
गौर से थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फैसले और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है

... प्रसून जोशी

Monday, December 29, 2008

सर फरोशी की तमन्ना ....

सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।

करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत
देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है।

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।

खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद
आशिक़ों का आज झमघट कूचा-ए-क़ातिल में है।

है लिए हथियार दुश्मन ताक़ में बैठा उधर
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर

खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है।
हाथ जिन में हो जुनून कटते नहीं तलवार से


सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है।

हम तो घर से निकले ही थे बांध कर सर पे क़फ़न
जान हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये क़दम

ज़िंदगी तो अपनी मेहमाँ मौत की महफ़िल में है।
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इंक़िलाब


होश दुशमन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज
दूर रह पाए जो हम से दम कहां मंज़िल में है।

यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है।

"शहीद रामप्रसाद बिस्मिल "

हे ! मातृभूमि

हे मातृभूमि ! तेरे चरणों में शिर नवाऊँ ।
मैं भक्ति भेंट अपनी, तेरी शरण में लाऊँ ।।

माथे पे तू हो चंदन, छाती पे तू हो माला ;
जिह्वा पे गीत तू हो मेरा, तेरा ही नाम गाऊँ ।।

जिससे सपूत उपजें, श्री राम-कृष्ण जैसे;
उस धूल को मैं तेरी निज शीश पे चढ़ाऊँ ।।

माई समुद्र जिसकी पद रज को नित्य धोकर;
करता प्रणाम तुझको, मैं वे चरण दबाऊँ ।।

सेवा में तेरी माता ! मैं भेदभाव तजकर;
वह पुण्य नाम तेरा, प्रतिदिन सुनूँ सुनाऊँ ।।

तेरे ही काम आऊँ, तेरा ही मंत्र गाऊँ।
मन और देह तुझ पर बलिदान मैं जाऊँ ।।


"राम प्रसाद बिस्मिल "

उठो धरा के अमर सपूतो ....

उठो धरा के अमर सपूतो
पुनः नया निर्माण करो ।

जन-जन के जीवन में फिर से
नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो ।

नया प्रात है, नई बात है,
नई किरण है, ज्योति नई ।

नई उमंगें, नई तरंगे,
नई आस है, साँस नई ।

युग-युग के मुरझे सुमनों में,
नई-नई मुसकान भरो ।

डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ
नए स्वरों में गाते हैं ।

गुन-गुन, गुन-गुन करते भौंरे
मस्त हुए मँडराते हैं ।

नवयुग की नूतन वीणा में
नया राग, नवगान भरो ।

कली-कली खिल रही इधर
वह फूल-फूल मुस्काया है ।

धरती माँ की आज हो रही
नई सुनहरी काया है ।

नूतन मंगलमयी ध्वनियों से
गुँजित जग-उद्यान करो ।

सरस्वती का पावन मंदिर
यह संपत्ति तुम्हारी है ।

तुम में से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है ।

शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आव्हान करो ।

उठो धरा के अमर सपूतो,
पुनः नया निर्माण करो ।


द्वारिका प्रसाद महेश्वरी

इतने ऊंचे उठो ...

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥

नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥

लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके न चिंतन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।

चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥

"द्वारिका प्रसाद महेश्वरी "

वीर तुम बढे चलो

वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !
हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे

ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी स्र्के नहीं
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं

वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !
प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो

सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये

वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !
अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा

यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

वो महफिलें वो शाम सुहानी

वो महफ़िलें, वो शाम सुहानी कहाँ गई
मेह्र—ओ—वफ़ा की रस्म पुरानी कहाँ गई

कुंदन —सा जिस्म चाट गई मौसमों की आग
चुनरी वो जिसका रंग था धानी कहाँ गई

कहते हैं उस सराए में होटल है आजकल
पुरखों की वो अज़ीम निशानी कहाँ गई

इतने कटे हैं पेड़ कि बंजर हुई ज़मीन
नदियों की पुरख़राम रवानी कहाँ गई

खिलते थे कँवल जिसमें वो तालाब ख़ुश्क है
बदली वो जिससे मिलता था पानी कहाँ गई

मकर—ओ—रया के क़िस्से हैं सबकी ज़बान पर
उल्फ़त की पुर—ख़ुलूस कहानी कहाँ गई

‘साग़र’! ये आन पहुँचे हैं हम किस मुक़ाम पर
मुड़—मुड़ के देखते हैं जवानी कहाँ गई !

मनोहर 'सागर ' पालमपुरी

कमर बांधे हुए चलने को ....

कमर बाँधे हुए चलने को यां सब यार बैठे हैं
बहुत आगे गये, बाक़ी जो हैं तय्यार बैठे हैं

न छेड़ ऐ निकहते-बादे-बहारीं, राह लग अपनी
तुझे अठखेलियाँ सूझी हैं, हम बेज़ार बैठे हैं

ख़याल उन का परे है अर्श-ए-आज़म से कहीं साक़ी
गरज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मैख़्वार बैठे हैं

बसाने नक़्श-ए-पा-ए-रहरवाँ कू-ए-तमन्ना में
नहीं उठने की ताक़त क्या करें लाचार बैठे हैं

कहें हैं सब्र किस को आह नंग-ओ-नाम है क्या शै
गरज़ रो पीटकर इन सब को हम यकबार बैठे हैं

कहीं बोसे की मत जुर्रत दिला! कर बैठियो उन से
अभी इस हद को वो कैफ़ी नहीं, होशियार बैठे हैं

नजीबों का अजब कुछ हाल है इस दौर में यारों
जिसे पूछो यही कहते हैं हम बेकार बैठे हैं

नई यह वज़'अ शर्माने की सीखी आज है तुम ने
हमारे पास साहब वरना यूँ सौ बार बैठे हैं

कहाँ गर्दिश फ़लक की चैन देती है सुना 'इंशा'
ग़नीमत है कि हम-सूरत यहाँ दो चार बैठे हैं

सैय्यद इंशा अल्लाह खां ' इंशा'

ग़म-ऐ-हयात का

ग़म-ए-हयात का झगड़ा मिटा रहा है कोई
चले भी आओ के दुनिया से जा रहा है कोई

कहो अजल से ज़रा दो घड़ी ठहर् जाये
सुना है आने का वादा निभा रहा है कोई

वो आज लिपटे हैं किस नाज़ुकी से लाशे को
के जैसे रूठों हुओं को मना रहा है कोई

कहीं पलट के न आ जाये साँस नब्ज़ों में
हसीन हाथों से मय्यत सजा रहा है कोई

"सरदार अंजुम"

ग़मों ने घेर लिया है, मुझे क्या ग़म है.

ग़मों ने घेर लिया है मुझे तो क्या ग़म है
मैं मुस्कुरा के जियूँगा तेरी ख़ुशी के लिये
कभी कभी तू मुझे याद कर तो लेती है
सुकून इतना सा काफ़ी है ज़िन्दगी के लिये

ये वक़्त जिस ने पलट कर कभी नहीं देखा
ये वक़्त अब भी मुरादों के फल लाता है
वो मोड़ जिस ने हमें अजनबी बना डाला
उस एक मोड़ पे दिल अब भी गुनगुनाता है

फ़िज़ायें रुकती हैं राहों पर जिन से हम गुज़रे
घटायें आज भी झुक कर सलाम करती हैं
हर एक शब ये सुना है फ़लक से कुछ् परियाँ
वफ़ा का चाँद हमारे ही नाम करती हैं

ये मत कहो कि मुहब्बत से कुछ नहीं पाया
ये मेरे गीत मेरे ज़ख़्म-ए-दिल की रुलाई
जिन्हें तरसती रही अन्जुमन की रंगीनी
मुझ मिली है मुक़द्दर से ऐसी तन्हाई

"सरदार अंजुम "

हमसफ़र होता कोई

हमसफ़र होता कोई तो बाँट लेते दूरियाँ
राह चलते लोग क्या समझें मेरी मजबूरियाँ

मुस्कुराते ख़्वाब चुनती गुनगुनाती ये नज़र
किस तरह समझे मेरी क़िस्मत की नामंज़ूरियाँ

हादसों की भीड़ है चलता हुआ ये कारवाँ
ज़िन्दगी का नाम है लाचारियाँ मजबूरियाँ

फिर किसी ने आज छेड़ा ज़िक्र-ए-मंजिल इस तरह
दिल के दामन से लिपटने आ गई हैं दूरियाँ

"सरदार अंजुम "

तेरा मेरा झगडा क्या है ?

तेरा मेरा झगड़ा क्या जब इक आँगन की मिट्टी है
अपने बदन को देख ले छूकर मेरे बदन की मिट्टी है

भूखी प्यासी भटक रही है दिल में कहीं उम्मीद् लिये
हम और तुम जिस में खाते थे उस बर्तन की मिट्टी है

ग़ैरों ने कुछ् ख़्वाब दिखाकर नींद चुरा ली आँखों से
लोरी दे दे हार गई जो घर आँगन की मिट्टी है

सोच समझकर तुम ने जिस के सभी घरोन्दे तोड़ दिये
अपने साथ जो खेल रहा था उस बचपन की मिट्टी है

चल नफ़रत को छोड़ के 'अंजुम' दिल के रिश्ते जोड़ के 'अंजुम'
इस मिट्टी का क़र्ज़ उतारें अपने वतन की मिट्टी है

"सरदार अंजुम"

चलो बाँट लेते हैं ...

चलो बाँट लेते हैं अपनी सजाएँ
ना तुम याद आओ ना हम याद आयें

सभी ने लगाया है चेहरे पे चेहरा
किसे याद रखें किसे भूल जायें

उन्हें क्या ख़बर हो आनेवाला ना आया
बरसती रहीं रात भर ये घटायें

"सरदार अंजुम "


जब कभी तेरा नाम लेते हैं

जब कभी तेरा नाम लेते हैं
दिल से हम इन्तक़ाम लेते हैं

मेरी बर्बादियों के अफ़साने
मेरे यारों का नाम लेते हैं

बस यही एक जुर्म् है अपना
हम मुहब्बत से काम लेते हैं

हर क़दम पर गिरे पर सीखा
कैसे गिरतों को थाम लेते हैं

हम भटक कर जुनूँ की राहों में
अक़्ल से इन्तक़ाम लेते हैं

"सरदार अंजुम "

न चाहूं मान दुनिया में ..

न चाहूं मान दुनिया में, न चाहूं स्वर्ग को जाना ।
मुझे वर दे यही माता रहूं भारत पे दीवाना ।

करुं मैं कौम की सेवा पडे चाहे करोडों दुख ।
अगर फ़िर जन्म लूं आकर तो भारत में ही हो आना ।

लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूं हिन्दी लिखूं हिन्दी ।
चलन हिन्दी चलूं, हिन्दी पहरना, ओढना खाना ।

भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की ।
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना ।

लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन ।
करुं में प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना ।

नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना ।।

"राम प्रसाद बिस्मिल "

मूल मंत्र

केवल मन के चाहे से ही
मनचाही होती नहीं किसी की।

बिना चले कब कहाँ हुई है
मंज़‍िल पूरी यहाँ किसी की।।

पर्वत की चोटी छूने को
पर्वत पर चढ़ना पड़ता है।

सागर से मोती लाने को
गोता खाना ही पड़ता है।।

उद्यम किए बिना तो चींटी
भी अपना घर बना न पाती।

उद्यम किए बिना न सिंह को
भी अपना शिकार मिल पाता।।

इच्‍छा पूरी होती तब, जब
उसके साथ जुड़ा हो उद्यम।

प्राप्‍त सफलता करने का है,
'मूल मंत्र' उद्योग परिश्रम।।

"द्वारिका प्रसाद महेश्वरी "

Saturday, December 27, 2008

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था

वफ़ा करेंगे निभाएंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मक़ाम किस का था

न पूछ-पाछ थी किसी की, न आवभगत
तुम्हारी बज्म् में कल एहतमाम किस का था

हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था

इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था

गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था

हर एक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला
ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था

दाग देहलवी

Friday, December 26, 2008

साफ़ ज़ाहिर है निगाहों से

साफ़ ज़ाहिर है निगाहों से कि हम मरते हैं
मुँह से कहते हुए ये बात मगर डरते हैं

एक तस्वीर-ए-मुहब्बत है जवानी गोया
जिस में रंगो की इवज़ ख़ून-ए-जिगर भरते हैं

इशरत-ए-रफ़्ता ने जा कर न किया याद हमें
इशरत-ए-रफ़्ता को हम याद किया करते हैं

आस्माँ से कभी देखी न गई अपनी ख़ुशी
अब ये हालात हैं कि हम हँसते हुए डरते हैं

शेर कहते हो बहुत ख़ूब तुम "अख्तर"
लेकिनअच्छे शायर ये सुना है कि जवाँ मरते हैं

अख्तर अंसारी
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

ज़ीस्त= जीवन;

इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़्त, नक़्श बेदीवार नहीं हूँ

ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर; बेलौस= लांछन के बिना

अफ़सुर्दा हूँ इबारत से, दवा की नहीं हाजित
गम़ का मुझे ये जो’फ़ है, बीमार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा= निराश; (ज़ौफ़)= कमजोरी,क्षीणता

वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ

यारब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़ की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़=निराशा और क्षीणता;

" अकबर इलाहाबादी "

साँस लेते हुए भी डरता हूँ

साँस लेते हुए भी डरता हूँ
ये न समझें कि आह करता हूँ

बहर-ए-हस्ती में हूँ मिसाल-ए-हुबाब
मिट ही जाता हूँ जब उभरता हूँ

बहर-ए-हस्ती = जीवन सागरहुबाब = बु्लबुला

इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है
साँस लेता हूँ बात करता हूँ

शेख़ साहब खुदा से डरते हो
मैं तो अंग्रेज़ों ही से डरता हूँ

आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज
शुक्र अल्लाह का है मरता हूँ

ये बड़ा ऐब मुझ में है 'अकबर'
दिल में जो आए कह गुज़रता हूँ

"अकबर इलाहाबादी"

Tuesday, December 16, 2008

ये ना थी हमारी किस्मत

ये ना थी हमारी किस्मत के विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इन्तजार होता...
तेरे वादे पे जिए हम तो ये जान झूठ जाना,
के ख़ुशी से मर ना जाते यही एतबार होता...
ये कहाँ की दोस्ती के बने हैँ दोस्त नासेह,
कोई चारसाज़ होता कोई गमगुसार होता...
रग-ए-संग से टपकता वो लहू के फिर न थमता,
जिसे गम समझ रहे हो ये अगर शरार होता....
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क-ए-दरिया,
ना कभी ज़नाजा उठता ना कहीं मजार होता...
तेरी नाज़ुकी से जाना के बंधा था एहद- बुदा,
कभी तू न तोड़ सकता गर ऊसतुवार होता...
उसे कौन देख सकता के यगाना है या यक्ता,
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता...
कहूँ किस से मैं की क्या है शब-ए-गम बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता...
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को,
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता...
ये मिसाल-ए-तस्व्वुफ़ ये तेरे बयान गालिब,
हम तुझे वली समझते, जो न बादाख्वार होता...

मिर्ज़ा गालिब