Wednesday, May 20, 2009

ज़ख्म था ज़ख्म का निशान भी था
दर्द का अपना इक मकान भी था

दोस्त था और मेहरबान भी था
ले रहा मेरा इम्तिहान भी था

शेयरों में गज़ब़ उफान भी था
कर्ज़ में डूबता किसान भी था

आस थी जीने की अभी बाकी
रास्ते में मगर मसान भी था

कोई काम आया कब मुसीबत में
कहने को अपना ख़ानदान भी था

मर के दोज़ख मिला तो समझे हम
वाकई दूसरा जहान भी था

उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें
फ़ासिला उनके दरमियान भी था

ख़ुदकुशी ‘श्याम’'कर ली क्यों तूने
तेरी क़िस्मत में आसमान भी था

Tuesday, May 12, 2009

तुम मुझे पुकार लो!

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो!


ज़मीन है न बोलती,

न आसमान बोलता,

जहान देखकर मुझे

नहीं ज़बान खोलता,

नहीं जगह कहीं जहाँ

न अजनबी गिना गया,

कहाँ-कहाँ न फिर चुका

दिमाग-दिल टटोलता;

कहाँ मनुष्‍य है कि जो

उमीद छोड़कर जिया,

इसीलिए अड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो;

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो;


तिमिर-समुद्र कर सकी

न पार नेत्र की तरी,

वि‍नष्‍ट स्‍वप्‍न से लदी,

विषाद याद से भरी,

न कूल भूमि का मिला,

न कोर भेर की मिली,

न कट सकी, न घट सकी

विरह-घिरी विभावरी;

कहाँ मनुष्‍य है जिसे

कभी खाली न प्‍यार की,

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे दुलार लो!

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो!


उजाड़ से लगा चुका

उमीद मैं बाहर की,

निदाघ से उमीद की,

वसंत से बयार की,

मरुस्‍थली मरीचिका

सुधामयी मुझे लगी,

अँगार से लगा चुका

उमीद मैं तुषार की;

कहाँ मनुष्‍य है जिसे

न भूल शूल-सी गड़ी,

इसीलिए खड़ा रहा

कि भूल तुम सुधार लो!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!


हरिवंश राय बच्चन