Friday, June 25, 2010

रोने में इक ख़तरा है

रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं

इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं, फल शहरी हो जाते हैं

बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है
रहते-रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं

सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये, लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले, रुसवा भी हो जाते हैं

अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं

3 comments:

  1. वर्तमान बदलते परिवेश के बीच इन्सानियत की तलाश करती बेहतरीन गजल....बधाई।

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  2. पत्ते देहाती रहते हैं, फल शहरी हो जाते हैं

    bahut sundar

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  3. गज़ब के शेरों से सजी लाजवाब ग़ज़ल - बहुत बहुत सुंदर

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