Monday, December 29, 2008

ग़म-ऐ-हयात का

ग़म-ए-हयात का झगड़ा मिटा रहा है कोई
चले भी आओ के दुनिया से जा रहा है कोई

कहो अजल से ज़रा दो घड़ी ठहर् जाये
सुना है आने का वादा निभा रहा है कोई

वो आज लिपटे हैं किस नाज़ुकी से लाशे को
के जैसे रूठों हुओं को मना रहा है कोई

कहीं पलट के न आ जाये साँस नब्ज़ों में
हसीन हाथों से मय्यत सजा रहा है कोई

"सरदार अंजुम"

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