Monday, December 29, 2008

हमसफ़र होता कोई

हमसफ़र होता कोई तो बाँट लेते दूरियाँ
राह चलते लोग क्या समझें मेरी मजबूरियाँ

मुस्कुराते ख़्वाब चुनती गुनगुनाती ये नज़र
किस तरह समझे मेरी क़िस्मत की नामंज़ूरियाँ

हादसों की भीड़ है चलता हुआ ये कारवाँ
ज़िन्दगी का नाम है लाचारियाँ मजबूरियाँ

फिर किसी ने आज छेड़ा ज़िक्र-ए-मंजिल इस तरह
दिल के दामन से लिपटने आ गई हैं दूरियाँ

"सरदार अंजुम "

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