अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए।
सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाबिए।
ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें
चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए।
चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में
पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए।
मुमकिन है खून आपके दामन पे जा लगे
ज़ख़्मों के आस पास यों ज्यादा न दाबिए।
पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए।
डॉ कुँअर बेचैन
Friday, February 13, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment