निभाई है यहाँ हमने मुहव्बत भी सलीके से
दिए जो रंज़ो-ग़म इसने लगाए हमने सीने से
हमेशा ज़िंदगी जी है यहाँ औरों की शर्तों पर
मिले मौका अगर फिर से जिऊँ अपने तरीके से
न की तदबीर ही कोई , न थी तकदीर कुछ जिनकी
सवालों और ख्यालों मे मिले हैं अब वो उलझे से।
जो टूटे शाख से यारो अभी पत्ते हरे हैं वो
यकीं कुछ देर से होगा नही अब दिन वो पहले से
घरों से उबकर अब लोग मैखाने मे आ बैठे
सजी हैं महफिलें देखो यहां कितेने क़रीने से
"ख्याल" अपनी ही करता है कहाँ वो मेरी सुनता है
नज़र आते हैं उसके तो मुझे तेवर ही बदले से
सतपाल 'ख़्याल
Friday, February 13, 2009
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