Thursday, July 15, 2010

लो राज़ की बात आज एक बताते हैं
हम हँस-हँसकर अपने ग़म छुपाते हैं

तन्हा होते हैं तो रो लेते जी भर कर
सर-ए-महफ़िल आदतन मुस्कुराते हैं

कोई और होंगे रुतबे के आगे झुकने वाले
हम सिर बस खुदा के दर पर झुकाते हैं

माँ आज फिर तेरे आँचल मे मुझे सोना है
आजा बड़ी हसरत से देख तुझे बुलाते हैं

इसे ज़िद समझो या हमारा शौक़-औ-हुनर
चिराग हम तेज़ हवायों मे ही जलाते है

तुमने महल-औ-मीनार, दौलत कमाई हो बेशक़
पर गैर भी प्यार से मुझको गले लगाते हैं

शराफत हमेशा नज़र झुका कर चलती हैं
हम निगाह मिलाते हैं, नज़रे नहीं मिलाते हैं

ये मुझ पे ऊपर वाले की इनायत हैं “दीपक”
वो खुद मिट जाते जो मुझ पर नज़र उठाते हैं



दीपक शर्मा

Saturday, July 10, 2010

हौसला शर्त-ए-वफ़ा क्या करना

हौसला शर्त-ए-वफ़ा क्या करना
बंद मुट्ठी में हवा क्या करना

जब न सुनता हो कोई बोलना क्या
क़ब्र में शोर बपा क्या करना

क़हर है, लुत्फ़ की सूरत आबाद
अपनी आँखों को भी वा क्या करना

दर्द ठहरेगा वफ़ा की मंज़िल
अक्स शीशे से जुदा क्या करना

शमा-ए-कुश्ता की तरह जी लीजे
दम घुटे भी तो गिला क्या करना

मेरे पीछे मेरा साया होगा
पीछे मुड़कर भी भला क्या करना

कुछ करो यूँ कि ज़माना देखे
शोर गलियों में सदा क्या करना


किश्वर नाहिद

Friday, June 25, 2010

रोने में इक ख़तरा है

रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं

इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं, फल शहरी हो जाते हैं

बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है
रहते-रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं

सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये, लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले, रुसवा भी हो जाते हैं

अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं

Thursday, July 9, 2009

मंज़र है वही ठठक रही हूँ
हैरत से पलक झपक रही हूँ

ये तू है के मेरा वहम है
बंद आँखों से तुझ को तक रही हूँ

जैसे के कभी न था तार्रुफ़
यूँ मिलते हुए झिझक रही हूँ

पहचान मैं तेरी रोशनी हूँ
और तेरी पलक पलक रही हूँ

क्या चैन मिला है सर जो उस के
शानों पे रखे सिसक रही हूँ

इक उम्र हुई है ख़ुद से लड़ते
अंदर से तमाम थक रही हूँ

परवीन शाकिर

Wednesday, May 20, 2009

ज़ख्म था ज़ख्म का निशान भी था
दर्द का अपना इक मकान भी था

दोस्त था और मेहरबान भी था
ले रहा मेरा इम्तिहान भी था

शेयरों में गज़ब़ उफान भी था
कर्ज़ में डूबता किसान भी था

आस थी जीने की अभी बाकी
रास्ते में मगर मसान भी था

कोई काम आया कब मुसीबत में
कहने को अपना ख़ानदान भी था

मर के दोज़ख मिला तो समझे हम
वाकई दूसरा जहान भी था

उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें
फ़ासिला उनके दरमियान भी था

ख़ुदकुशी ‘श्याम’'कर ली क्यों तूने
तेरी क़िस्मत में आसमान भी था

Tuesday, May 12, 2009

तुम मुझे पुकार लो!

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो!


ज़मीन है न बोलती,

न आसमान बोलता,

जहान देखकर मुझे

नहीं ज़बान खोलता,

नहीं जगह कहीं जहाँ

न अजनबी गिना गया,

कहाँ-कहाँ न फिर चुका

दिमाग-दिल टटोलता;

कहाँ मनुष्‍य है कि जो

उमीद छोड़कर जिया,

इसीलिए अड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो;

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो;


तिमिर-समुद्र कर सकी

न पार नेत्र की तरी,

वि‍नष्‍ट स्‍वप्‍न से लदी,

विषाद याद से भरी,

न कूल भूमि का मिला,

न कोर भेर की मिली,

न कट सकी, न घट सकी

विरह-घिरी विभावरी;

कहाँ मनुष्‍य है जिसे

कभी खाली न प्‍यार की,

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे दुलार लो!

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो!


उजाड़ से लगा चुका

उमीद मैं बाहर की,

निदाघ से उमीद की,

वसंत से बयार की,

मरुस्‍थली मरीचिका

सुधामयी मुझे लगी,

अँगार से लगा चुका

उमीद मैं तुषार की;

कहाँ मनुष्‍य है जिसे

न भूल शूल-सी गड़ी,

इसीलिए खड़ा रहा

कि भूल तुम सुधार लो!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!


हरिवंश राय बच्चन

Saturday, April 25, 2009

वीर

राष्ट्र कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर जी की पुण्य तिथि पर


सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं

स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं सच् है , विपत्ति जब आती है ,
कायर को ही दहलाती है ,
सूरमा नहीं विचलित होते ,
क्षण एक नहीं धीरज खोते ,
विघ्नों को गले लगाते हैं ,
कांटों में राह बनाते हैं ।

मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं ,
संकट का चरण न गहते हैं ,
जो आ पड़ता सब सहते हैं ,
उद्योग - निरत नित रहते हैं ,
शुलों का मूळ नसाते हैं ,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं ।

है कौन विघ्न ऐसा जग में ,
टिक सके आदमी के मग में ?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़ ,
मानव जब जोर लगाता है ,
पत्थर पानी बन जाता है ।

गुण बड़े एक से एक प्रखर ,
हैं छिपे मानवों के भितर ,
मेंहदी में जैसी लाली हो ,
वर्तिका - बीच उजियाली हो ,
बत्ती जो नहीं जलाता है ,
रोशनी नहीं वह पाता है ।



Thursday, April 23, 2009

चलना हमारा काम है ।

शिवमंगल सिंह 'सुमन' जी द्वारा रचित एक प्रेरणा दायक कविता यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ, उम्मीद है पसंद आएगी

गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है ।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है ।

Saturday, April 18, 2009

Tuesday, April 7, 2009

अक़्स-ए-खुशबू हूँ

अक़्स-ए-खुशबू हूँ बिखरने से ना रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को ना समेटे कोई

काँप उठती हूँ मैं सोच कर तनहाई में
मेरे चेहरे पर तेरा नाम ना पढ़ ले कोई

जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा रेज़ा
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई

अब तो इस राह से वो शख़्स गुजरता भी नहीं
अब किस उम्मीद पर दरवाजे से झांके कोई

कोई आहट, कोई आवाज, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई


परवीन शाकिर

यूं तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे

यूं तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे
कांधे पे अपने रख के अपना मजार गुज़रे

बैठे रहे हैं रास्ते में दिल का खंडहर सजा कर
शायद इसी तरफ से एक दिन बहार गुज़रे

बहती हुई ये नदिया घुलते हुए किनारे
कोई तो पार उतारे कोई तो पार गुज़रे

तू ने भी हम को देखा हमने भी तुझको देखा
तू दिल ही हार गुज़रा हम जान हार गुज़रे



मीना कुमारी 'नाज़'

Saturday, April 4, 2009

बना गुलाब तो कांटें चुभा गया इक शख्स

बना गुलाब तो कांटें चुभा गया इक शख्स
हुआ चिराग तो घर ही जला गया इक शख्स

तमाम रंग मेरे और सारे ख्वाब मेरे
फ़साना कह के फ़साना बना गया इक शख्स

मैं किस हवा में उडूं किस फजा में लहराऊँ
दुखों के जाल हर -सू बिछा गया इक शख्स

पलट सकूँ मैं न आगे बढ़ सकूँ जिस पर
मुझे ये कौन से रास्ते लगा गया इक शख्स

मुहब्बतें भी अजीब उस की नफरतें भी कमाल
मेरी तरह का ही मुझ में समा गया इक शख्स

वो महताब था मरहम -बा -दस्त आया था
मगर कुछ और सिवा दिल दुखा गया इक शख्स

[बा -दस्त = हाथ में ; सिवा = ज्यादा ]

खुला ये राज़ के आइना -खाना है दुनिया
और इस में मुझ को तमाशा बना गया इक शख्स

[आइना -खाना = शीशे का घर ]


ओबैदुल्लाह अलीम

अजीज़ इतना ही रखो

अजीज़ इतना ही रखो के जी संभल जाये
अब इस कदर भी ना चाहो के दम निकल जाये

मिले हैं यूं तो बहुत आओ अब मिलें यूं भी
के रूह गरमी -ऐ -अनफास से पिघल जाये

मुहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
के जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये

रहे वो दिल जो तमन्ना - ऐ -ताज़ा तर में रहे
खुशा वो उम्र जो ख़्वाबों ही में बहल जाये

मैं वो चराग -ऐ -सर -ऐ - रहगुज़ार -ऐ -दुनिया हूँ
जो अपनी जात की तन्हाईयों में जल जाये

हर एक लहजा यही आरजू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शेर में भी ढल जाये


अब्दुल्लाह अलीम

Friday, April 3, 2009

सफ़र नया ज़िंदगी का तुमको

सफ़र नया ज़िंदगी का तुमको न रास आए तो लौट आना
फ़िराक़ में मेरे नींद तुमको अगर न आए तो लौट आना

नहीं है अब कैफ़ कोई बाक़ी तुम्हारे जाने से ज़िंदगी में
तुम्हें भी रह-रह के याद मेरी अगर सताए तो लौट आना

तेरे लिए मेरा दर हमेशा इसी तरह से खुला रहेगा
अगर कभी वापसी का दिल में ख़याल आए तो लौट आना

बग़ैर तेरे बुझा- बुझा है बहार का ख़ुशगवार मंज़र
तुझे भी यह ख़ुशगवार मंज़र अगर न भाए तो लौट आना

तुम्हारी सरगोशियाँ अभी तक वह मेरे कानों में गूँजती हैं
हसीन लमहा वह ज़िंदगी का जो याद आए तो लौट आना

ग़ज़ल सुनाऊँ मैं किसको हमदम कि मेरी जाने ग़ज़ल तुम्हीं हो
दोबारा वह नग़म-ए- मोहब्बत जो याद आए तो लौट आना

ख़याल इसका नहीं कि दुनिया हमारे बारे में क्या कहेगी
जो कोई तुमसे न अपना अहदे वफ़ा निभाए तो लौट आना

है दिन में बे-कैफ़ क़लबे मुज़तर बहुत ही सब्र आज़मा हैं रातें
तुम्हेँ भी ऐसे मे याद मेरी अगर सताए तो लौट आना

तुझे भी एहसास होगा कैसे शबे जुदाई गुज़र रही है
सँभालने से भी दिल जो तेरा संभल न पाए तो लौट आना

कभी न तू रह सकेगा मेरे बग़ैर ‘बर्क़ी’ मुझे यक़ीं है
ख़याल मेरा जो तेरे दिल से कभी न जाए तो लौट आना


अहमद अली ' बर्की' आज़मी

पलट कर वो कहीं कर दे न तुम पर वार चुटकी में

बदलता रहता है हर दम मिज़ाजे-यार चुटकी में ,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी में

कहीं ऐसा न हो हो जाए वह बेज़ार चुटकी में
तुम उस से कर रहे हो दिल्लगी बेकार चुटकी में

दिले नादाँ ठहर, अच्छी नहीं यह तेरी बेताबी
नहीं होती है राह-ए-वस्ल यूँ हमवार चुटकी में

अगर चशमे -इनायत हो गई उसकी तो दम भर में
वह रख देगा बदल कर तेरा हाल-ए-ज़ार चुटकी में


अगर मर्ज़ी नहीं उसकी तो तुम कुछ कर नहीं सकते
अगर चाहे तो हो जाएगा बेड़ा पार चुटकी में

बज़ाहिर नर्म दिल है ,वो कभी ऐसा भी होता है
वो हो जाता है अकसर बर-सरे पैकार चुटकी में

कभी भूले से भी करना न तुम उसकी दिल आज़ारी
बदल जाती है उसकी शोख़ी -ए -गुफ़्तार चुटकी में

सँभल कर सब्र का तुम लेना उसके इम्तिहाँ वरना
पलट कर वो कहीं कर दे न तुम पर वार चुटकी में

हमेशा याद रखना वो बहुत हस्सास है 'बर्क़ी'
अगर ख़ुश है तो हो जाएगा वो तैयार चुटकी में


अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी